उत्तराखंड के माता पूर्णागिरी मे 18 से 27 सितम्बर तक होगा विशाल भण्डारे का आयोजन - दस दिवसीय भण्डारे के आयोजन मे पहुंचते है हजारों श्रद्धालु -

 स्वतंत्र प्रभात
 
पलिया कलां खीरी। उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध पूर्णागिरी धाम स्थित माता काली मंदिर के समीप रामबेड़ा धर्मशाला मे अठारह से सत्ताइस सितम्बर तक चलेगा विशाल भंडारे का आयोजन जिसमे पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की सुविधाओं का विशेष प्रवंध रहता है ।
भंडारे के आयोजक कृष्ण कुमार गोपी ने बताया की पूर्णागिरी दरबार मे  सोलह बर्षों से भंडारे का आयोजन सभी श्रद्धालुगणों के सहयोग होता चला आ रहा है जिसमे महिलाओं बच्चों के लिए दूध फल चाय एवं स्वरूचि भोजन की व्यवस्था के साथ इमरजेंसी सुविधा दवा आदि का भी उचित प्रवंध रहता है ।
 
वैसे तो ज्यादातर श्रद्धालु गण विभिन्न प्रकार से गंतव्य तक या अपने निजी वाहनों से पूर्णागिरी धाम पहुंचते है ।
वही यात्रा को सुगम बनाने के लिए बीच बीच मे निजी बसों के माध्यम से भी श्रद्धालुओं को पूर्णागिरी धाम तक  श्रीकुल आश्रम के संस्थापक गोविंद माधव मिश्र के सानिध्य मे लेकर जाया जाता है ।
 
बताते चले कि पूर्णागिरि मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले के टनकपुर नगर में काली नदी, जिसे शारदा नदी भी कहते हैं, के दाएं किनारे पर स्थित है। चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे चम्पावत जिले के प्रवेशद्वार टनकपुर से 19 किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ माँ भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। यह शक्तिपीठ टनकपुर के पर्वतीय अंचल में स्थित अन्नपूर्णा चोटी के शिखर में लगभग 3000 फीट की उंचाई पर स्थापित है।
 
माँ पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास ---------- 
शिव पुराण में रुद्र-सहिंता के अनुसार, राजा दक्ष प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ हुआ था। कहा जाता है कि ब्रम्ह पुत्र दक्ष प्रजापति  ने एक बार एक विशाल यज्ञ किया था। जिसके लिए उन्होंने सभी देवी- देवताओं और ऋषिओं को निमंत्रित किया था, परन्तु भगवान शिव को किसी पूर्वाग्रह की वजह से अपमानित करने की दृष्टि से निमंत्रण नहीं दिया। जिसे पार्वती (सती) ने भगवान शिव का घोर अपमान समझा और यज्ञ की वेदी में अपनी देह की आहुति कर दी। भगवान शिव यह जानकर बहुत ही क्रोधित हो गए और अपनी पत्नी के जले हुए  देह को लेकर आसमान में विचरण करते हुवे तांडव करने लगे। भगवान शिव का तांडव देखकर सारे देवी देवता परेशान हो गए और भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। भगवान विष्णु ने चिंतित होकर अपने चक्र से भगवान शिव द्वारा हाथ में लिए गए माता सती की देह के अलग- अलग हिस्से कर दिए। अलग -अलग हिस्से अलग- अलग जगहों में गिरे और जहां-जहां भी गिरे वहां- वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई । इन्ही हिस्सों में से एक हिस्सा जो कि माता सती की नाभि का था, अन्नपूर्णा पर्वत शिखर में जा कर गिर गया। कालान्तर में यह स्थान पूर्णागिरि कहलाया। माता पूर्णागिरि मंदिर में देवी के नाभि की पूजा की जाती है।
 
सोने का बन गया पर्वत ------- 
पुराणों के अनुसार, महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्माकुंड के पास पांडवों ने मां भगवती की कठोर पूजा-अर्चना तथा बह्मादेव मंडी में ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया था।
 
मंदिर की स्थापना ---------- 
गुजरात निवासी श्री चंद्र तिवारी ने मुगलों के अत्याचार से दुखी होकर चम्पावत में चंद वंशीय राजा ज्ञान चंद के दरबार में शरण ली थी। उसी समय एक मां पूर्णागिरि ने सपने में पूजा स्थल बनाने का आदेश दिया। मां के आदेश का पालन कर तिवारी ने 1632 में मां पूर्णागिरि धाम के मंदिर की स्थापना कर पूजा पाठ शुरू कर किया, जो आज भी चल रहा है।
 
टनकपुर से पूर्णागिरी की दूरी -------
टनकपुर उत्तराखंड के चम्पावत जिले का हिस्सा है।  बेहद खूबसूरत वनाचाद्दित पहाड़ियों की गोद में बसा छोटा सा शहर टनकपुर माँ पूर्णागिरि के आशीर्वाद की तरह प्रतीत होता है। टनकपुर पहुंचने के बाद पूर्णागिरि पहुंचने के लिए  टनकपुर से  आगे 17  किलोमीटर की दूरी अलग- अलग तरह के निजी वाहनों या फिर उत्तराखंड परिवहन की बस से तय की जा सकती है। जबकि अंतिम 3 किमी की यात्रा पैदल करनी पड़ती है, जिसमे खड़ी पहाड़ी के ऊपर चढ़ना पड़ता है और इस तरह हम पहुंचते है माँ पूर्णा के दरबार पूर्णागिरि मंदिर।

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