तब और अब 1983

किसी को अंदाज भी नहीं था कि कपिलदेव की टीम फाइनल में पहुंचेगी.

वैसे उस साल को 40 बरस बीत चुके हैं लेकिन यादों के गलियारे में उसकी ताजगी और कशिश आज भी वैसी ही. मैं किशोर था.

स्वतंत्र प्रभात-

तब दोपहिया ज्यादा थे कारें कम, "मैगी" तभी आई थी, लैंडलाइन फोन के लिए होती थी लंबी वेटिंग, "कुली" हुई थी रिलीज..उसी साल कपिल के देवों ने जीता था वर्ल्ड कप 83.वैसे उस साल को 40 बरस बीत चुके हैं लेकिन यादों के गलियारे में उसकी ताजगी और कशिश आज भी वैसी ही. मैं किशोर था. ना जाने कैसे छुट्टियों में दिल्ली पहुंचा हुआ था. किसी को अंदाज भी नहीं था कि कपिलदेव की टीम फाइनल में पहुंचेगी. हर मैच यादगार था. हर खिलाड़ी किसी ना किसी मैच में जीत का हीरो था. हां, उस टीम का हर खिलाड़ी हीरो था.

 

25 जून 1983 की शाम शकरपुर इलाके की शाम वो चुनिंदा घर आबाद होने लगे, जिनके घरों में टीवी था. तब घरों में पैनल वाले ब्लैक एंड व्हाइट टीवी ज्यादा थे. अडो़सी - पड़ोसी फाइनल मैच देख सकें, उसके लिए उन्होंने खुद ही इंतजाम कर डाले थे. कमरों में कुर्सियां या टाट बिछा दी गई थी या टीवी को बाहर निकाल दिया गया था, जिससे जितने चाहें उतने लोग फाइनल मैच का मजा लें.

 

टीवी स्क्रीन पर जमी निगाहें हर गेंद, हर विकेट और हर शाट पर उत्साह, निराशा, एनर्जी, जुनून पैदा करती थीं. किसी गेंद पर एकदम सन्नाटा बिखर जाता था और किसी पर सब थिरकने और हल्ला मचाने लगते थे. वह उमस और गर्मी से भरी हुई दिल्ली की शाम थी. उस मैच की बात करने से पहले आइए उस साल और उस जमाने को भी याद कर लेते हैं.

मोबाइल तब थे नहीं लैंडलाइन भी बड़ी बात होते थे.उन दिनों सड़कों पर दोपहिया वाहन ज्यादा थे. कारें कम. बजाज स्कूटर के लिए लंबी वेटिंग लगती थी. मोबाइल उस जमाने में थे नहीं और किसी को मालूम भी नहीं था कि ऐसी कोई चीज हर हाथ में आने वाली है. उसकी जगह लैंडलाइन टेलीफोन थे, जो थे तो बहुत कम लेकिन टेलीफोन विभाग से शिकायतें ही शिकायतें थीं. किसी के घर में टेलीफोन हुआ तो वो बड़ा आदमी माना जाता था, उसकी वेटिंग तो और भी लंबी थी. सालों बाद भी मिल जाए तो गनीमत.

 

"टू मिनट मैगी" लांच हुई और कंज्युमर मार्केट में नई हलचल आई
"टू-मिनट मैगी" उसी साल भारत के बाजारों में उतरी थी. धीमे धीमे खाना पकाने वाले इस देश में मैगी महिलाओं के लिए किसी राहत की तरह थी. उन्हें कुछ लिब्रलाइज करती हुई. हां, कह सकते हैं कि तभी भारत के कुछ सोए और ऊंघते कंज्युमर मार्केट में कुछ हलचल शुरू हुई थी.

ना प्राइवेट चैनल थे और न्यूज चैनल बस था केवल दूरदर्शन
तब प्राइवेट चैनल नहीं थे..ना न्यूज चैनल..ना मनोरंजन चैनल और ना स्पोर्ट्स चैनल ..बस था तो एक दूरदर्शन-उसी पर मनोरंजन था, न्यूज और स्पोर्ट्स भी-उसे बुद्धु बक्सा कहा जाता था. तब देश में रेडियो ज्यादा थे और टीवी कम- वो भी चुनिंदा शहरों में. कमेंट्री रेडियो पर सुनी जाती थी. हालांकि मुझको सुशील दोषी और एक्सपर्ट के नाम पर लाला अमरनाथ के ही नाम याद रह गए हैं. अलबत्ता, 1982 के एशियाड ने दिल्ली की सूरत कुछ बदल दी थी.

"कुली" सिनेमाघरों में लगी तो टाइगर श्राफ के पापा हीरो से छा गए थे
ये वो साल भी था जब सिने जगत में सुपरहिट फिल्म 'कुली" सिनेमाघरों में अवतरित हुई थी तो सारा खान की मम्मी अमृता सिंह की "बेताब" युवाओं का दिल बेताब कर रही थी, टाइगर श्राफ के पापा जैकी "हीरो" के जरिए छा गए थे, दूसरी ओर समानांतर सिनेमा "अर्धसत्य", "मासूम", "मंडी" जैसी फिल्मों के साथ मजबूत दस्तक दे रहा था. वैसे उस समय ये फिल्में जिन सिनेमाघरों में गुलजार हुईं और उनके टिकट ब्लैक में बिके, वो अब उदास इमारतों या खंडहरों पर बदल चुकी हैं. कहीं कहीं उन पर मार्केटिंग कांपलैक्स या नए मॉल खड़े हो चुके हैं. कौन कहेगा कि तब सिनेमा घरों में टिकट ब्लैक होते थे.

तब स्टीम इंजन ज्यादा थे
तब डीजल इंजन कम थे और स्टीम इंजन ज्यादा. छुक-छुक करके चलने वाले स्टीम इंजन दूर तक कोयला उड़ाते थे. विधायक साइकिल या स्कूटर पर चलते थे. कोयले या लकड़ी के बुरादे की अंगीठियां जलती थीं. कैरोसिन आय़ल के स्टोव भी थे.

गुलशन नंदा के नॉवेल ने बिकने के सारे रिकॉर्ड तोड़े थे
छोटे गांव-कस्बों और शहरों में लाइब्रेरियां जरूर होती थीं, जो शाम के वक्त गुलजार रहती थीं. अखबार गिने चुने थे लेकिन पत्रिकाओं की धूम थी. उसी जमाने में गुलशन नंदा के किसी नॉवेल ने बिकने के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले थे. मंदिरों में घंटियां बजती थीं. सुबह और शाम को अजान की भी आवाज आती थी.

उसी साल फूलन ने आत्मसमर्पण किया था
उसी साल फूलन देवी ने ग्वालियर में आत्मसमर्पण किया था. ये उन दिनों की बड़ी खबर थी. तब मध्य प्रदेश में जिस मुंह से सुनो, उसके पास फूलन के किस्से थे. पंजाब में भिंडरावाला और आतंकवाद चुनौती बनकर उभर रहे थे. एक दिन थरथराती और डराती हुई खबर आई कि असम के नेल्ली में बहुत से लोग मारे गए हैं. मरने वाले बांग्लादेशी शरणार्थी थे. बाद में अखबारों से पता लगा कि मृतकों की तादाद डेढ हजार से ऊपर है. ये उन दिनों के लिए लिहाज से दिलदहलाने वाली खबर थी.

मणिपुर की एक झोपड़ी में मेरी कोम का जन्म हुआ
उसी साल दूर मणिपुर में एक मामूली सी झोपड़ी में मेरी कोम का जन्म हुआ था. श्रीसंत का भी जन्म हुआ था, जो उस भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल था, जिसने 28 साल बाद वर्ल्ड कप जीता.

तब नेताओं के पास ज्यादा सुरक्षा नहीं होती थी
उन्हीं दिनों ये खबर छपी कि दिल्ली के जतंर-मंतर पर मार्निंग वाक करते पूर्व विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंगुली तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के कुत्ते लल्लू (हो सकता है लालू भी हो) ने काट खाई. तब नेताओं के पास ज्यादा सुरक्षा नहीं होती थी.

स्वराज पाल का नाम चर्चित हो गया
एक दिन स्वराज पाल का नाम किसी बड़ी मुसीबत की तरह देश के सामने आया. वो देश के बिजनेस जगत में हैरानी बनकर नमूदार हुए थे. लंदन में रहने वाले अनिवासी भारतीय स्वराज पाल ने दिल्ली स्टाक एक्सचेंज के जरिए देश की दो बड़ी कंपनियों "एस्कोर्ट्स" और "डीसीएम" के शेयर इतनी बडी़ तादाद में खरीदे कि उन्हें कंट्रोल करने की स्थिति में आ गए. इन कंपनियों के हाथ-पैर फूल गए. सरकार से गुहार हुई. रिजर्व बैंक हरकत में आया. तुरंत इस ट्रांजिक्सन पर रोक लग गई. बताने का मकसद ये है कि उन दिनों के दिन कैसे हुआ करते थे.

तब दिल्ली का यमुना पार इलाका उपेक्षित माना जाता था
अब 25 जून 1983 में उस वर्ल्ड कप मैच की ओर लौटते हैं. गरमी से बेचैन और चिलचिलाती हुई दोपहर. दिल्ली का शकरपुर इलाका तब मोहल्ला ज्यादा था. तब इसी इलाके से सटा लक्ष्मीनगर बाजार यमुना पार उपेक्षित माना जाता था. शकरपुर में उन दिनों ज्यादा टीवी नहीं थे. जिनके यहां ब्लैक एंड व्हाइट टीवी थे, उनकी भी हैसियत भी खास थी. बमु्श्किल 50-100 घरों में एक में टीवी सेट होता था.

सट्टा बाजार में भारत पर 50-1 का भाव था
मैं उन दिनों ना जाने कैसे दिल्ली आ गिरा था. अच्छा ही था. इसी बहाने भारत और वेस्टइंडीज के बीच वर्ल्ड कप के फाइनल को टीवी पर देखने का मौका जो मिल गया. सामने वाले जिस घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था. पूरे मोहल्ला उनके कमरे में अटा पड़ा था. कमरे के बाहर तक लोग खड़े थे या कुर्सियां लगाकर बैठे थे. हर शाट पर खूब हल्ला, हर आउट पर सन्नाटा छा जाता. इंग्लैंड के सट्टाबाजार में भारत पर 50-1 का भाव लगा था यानि सट्टा लगाने वालों की नजर में लगभग असंभव.

श्रीकांत ने दनादन शाट लगाए
मैच में जो कुछ था वो थी कृष्णामचारी श्रीकांत की बैटिंग. ..श्रीकांत की अपनी बैटिग स्टाइल है. वो विकेट पर जितनी देर रुकते थे, वही काफी होता था.आते ही फटाफट उनका बल्ला चलने लगा था. दूसरी ओर मैल्कम मार्शल के साथ तीन लंबे चौड़े दानवनुमा कैरिबियन गेंदबाज-जोएल गार्नर, लंबी बाहों वाले एंडी राबर्ट्स और माइकल होल्डिंग कहर ढहा रहे. और उखड़ते जा रहे थे भारतीय बल्लेबाज. श्रीकांत के अलावा कोई और बल्लेबाज ज्यादा चला ही नहीं. भारतीय टीम जब 183 रन बनाकर सिमटी तो लोगों ने मुंह बिचका लिये. लोग निराश थे. कह रहे थे अब आगे का मैच देखने का क्या फायदा-भारत तो जीतने से रहा.

असल में मैच तो संधू की उस गेंद ने ज्यादा बदला
मुझको अब तक वो गेंद याद है जो बलविंदर सिंह संधू ने चौथे ओवर में फेंकी. नीचे रहती ये गेंद ओपनर ग्रीनिज के विकेटों में घुसी और फिर तो समां ही बदल गया. उस दिन कपिलदेव ने विवियन रिचर्ड्स का जो असंभव कैच लपका, वो तो और भी गजब ही था. 140 रनों पर कैरिबियन ढह गए थे.

फिर मैदान और देश में खुशी ही खुशी थी
फिर मैदान में खुशी में मस्त भारतीय दर्शक जिधर देखो उधर भाग रहे थे. फिर कपिलदेव लार्ड्स की बालकनी पर खड़े हुए...ओर वर्ल्ड कप लिये हुए उनकी वो तस्वीर ही अविस्मरणीय नहीं हो गईा बल्कि उसी दिन भारतीय क्रिकेट का भाग्य भी बदल गया. टीवी के सामने लोग थिरक रहे थे. गले मिल रहे थे. रो रहे थे. खुशी कैसे जाहिर करें सोच नहीं पा रहे थे. वो वाकई खास दिन था.

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