क्यूँ ?

न डरों जग की निंदाओं से, मुझे मेरे जीने की स्वतंत्रता क्यू नहीं सैंपते हो ?

क्यू तुम मेरे व्यक्तित्व पर अपना व्यक्तित्व थोपते हो ?
क्यू मेरे इंन्द धनुषी स्वपनो को अपनी इच्छाओं के काले बादल से ढकते हो
क्यूं मेरे हिरन रूपी मन के पैरों में अपने आदेशों की बेडियाँ जकड़ते हो?
 क्यूँ मेरे पंखो को अपने  वर्चस्व की धार से कतरते हो?
क्यू तुम मेरे व्यक्तित्व पर अपने व्यक्तित्व को थोपते हो?
क्यूँ मेरे कल्पनलोक से खीच के अपनी वास्तविकता के धरातल पर पटकते हो ?
क्यों मेरे गुणों को अपनी  आवश्यकताओं से तोलते हो? 
क्यू नही समझते मेरे जीवन का लक्ष्य,
उसे अपने लक्ष्यों की ओर  मोड़ते हो ?
 
न डरों जग की निंदाओं से, मुझे मेरे जीने की स्वतंत्रता क्यू नहीं सैंपते हो?

 

प्रीति शुक्ला

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