विरोधी, गोदी और अब गोली मीडिया

दर्जनों लोगों को तड़पा-तड़पा कर मारने का आरोपी जिन टीवी कैमरों को अपना अभेद्य सुरक्षा कवच समझता था, जिन कैमरों के साये में उसके चहरे पर मृत्यु का खौफ तो दूर, रंच मात्र का शक भी नहीं था| उन्हीं कैमरों के बीच से हुई गोलियों की बौछार ने माफिया और उसके भाई का पल भर में काम तमाम कर दिया| यह सब अचानक हुआ या पूर्व नियोजित साजिश के तहत, इसकी चर्चा इस समय गाँव की गलियों से लेकर शहर के नुक्कड़ों तक हो रही है| किसी भी निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के बाद लोग यह कहते हुए बातचीत का विषय बदल देते हैं कि सच जल्द ही सबके सामने आएगा| वहीँ कुछ लोग यह भी आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि पकड़े गये तीनों हमलावरों को किसी बहाने से मौत के घाट उतारकर कहीं सत्य को सदा सर्वदा के लिए दफ़न ही न कर दिया जाए| आगे क्या होगा यह तो भविष्य के गर्त में है| लेकिन इस घटना के बाद से लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता, अब सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा है| समाज के कुछ बुद्धिजीवियों ने अभी तक पत्रकारिता को विरोधी और गोदी मीडिया के रूप में वर्गीकृत कर रखा था| लेकिन अब वह गोली मीडिया के रूप में लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ का तीसरा वर्ग भी निर्धारित कर सकते हैं|

टीवी चैनलों की आई बाढ़ और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन ने पत्रकारिता के मायने आज पूरी तरह बदल दिये हैं| टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में हल्ला बोल पत्रकारिता के शोरगुल के बीच मूल्यों की तिलांजलि न जाने कब दी जा चुकी है| लेकिन प्रयागराज की घटना ने पत्रकारिता का जो नवीन चेहरा प्रस्तुत किया है, उससे चिन्तित हुए बिना नहीं रहा जा सकता| वरिष्ठ पत्रकारों से अक्सर उनके जानने वाले प्रेस का परिचय-पत्र बनवाने के लिए निवेदन करते रहते हैं| ताकि वह अपने वाहन पर प्रेस लिखा सकें तथा सरकारी विभागों में पत्रकारिता का रौब जमाकर अपना व्यक्तिगत काम करवा सकें| रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूजपेपर्स फॉर इण्डिया से किसी तरह रजिस्ट्रेशन नम्बर हासिल करने वाले अनेक सम्पादक ऐसे हैं जिनके अख़बार का धरातल पर कहीं कोई बजूद नहीं है| ऐसे सम्पादक शौकिया लोगों से सदस्यता शुल्क के नाम पर अच्छी खासी रकम वसूल कर, अपने अख़बार का परिचय-पत्र प्रदान करके पत्रकारिता धर्म का निर्वहन कर रहे हैं| इसी सदस्यता शुल्क से ही सम्पादक जी के परिवार का खर्च चलता है| भले ही उनके अख़बार का पहचान-पत्र प्राप्त करने वाले उसका किसी भी हद तक दुर्पयोग क्यों न करते हों| यहाँ सदुपयोग के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है| अतीक और अशरफ के तीनों कातिलों के पास से जो डमी कैमरे बरामद हुए हैं| उनके बारे में अभी तक यह खुलासा नहीं हुआ है कि उनके माइक पर चिपका लोगो किस मीडिया संस्थान का है| लेकिन इससे इतना तो अनुमान लग ही जाता है कि कुछ टीवी चैनल भी फर्जी आईडी बनाने का कारोबार कर रहे हैं|

बीते लगभग पाँच वर्षों में इलेक्ट्रानिक तथा प्रिंट मीडिया के हुए जबरदस्त विस्तार के बाद पत्रकारों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक है| जिसके कारण आज यदि कोई वरिष्ठ पत्रकार भी किसी बड़े अधिकारी के साथ अलग से समय लेकर किसी विषय पर चर्चा करना चाहे तो अधिकारीगण प्रायः समय देने से परहेज करते हैं| अब वह सिर्फ पत्रकारों की भीड़ को सम्बोधित करने के लिए ही समय देते हैं| अतीक-अशरफ की हत्या के बाद से सुरक्षा के नाम पर पत्रकारों से दूरी बनाना अब उनके लिए और भी अधिक आसान हो गया है| पत्रकारिता को दर्पण की भी संज्ञा दी गयी है, जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्य को सार्वजनिक करना भर है| परन्तु यह तभी सम्भव है जबकि पत्रकारों को हर जगह आने-जाने की निर्बाध छूट हो| लेकिन 15 अप्रैल 2023 को रात साढ़े दस बजे प्रयागराज में हुए हत्याकाण्ड ने पत्रकारिता की इस स्वाभाविक स्वतन्त्रता को प्रतिबन्ध की बेड़ियों से जकड़ने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है| सरकार तथा उसके तन्त्र को इस हेतु अब पर्याप्त कारण मिल चुके हैं|

अपराधियों को विश्वविख्यात बनाने का चलन भी इन दिनों भारतीय मीडिया में जबर्दस्त ढंग से व्याप्त है| जब भी कोई बड़ा अपराधी पकड़ा जाता है या फिर उसके मामले की सुनवाई शुरू होती है| तब लगभग सभी चैनल सिर्फ और सिर्फ उसी पर डिबेट करवाते हैं, वह भी निराधार एवं निष्कर्षहीन| किसी भी अपराधी को एक जेल से दूसरी जेल में सिफ्ट करते समय या अदालत ले जाते वक्त सभी चैनलों के रिपोर्टर रात-दिन एक करके उसका पीछा करते हैं| मार्ग में जब भी कहीं उन्हें अपराधी की गाड़ी के निकट पहुँचने का अवसर मिलता है तो एंकर ‘वह देखो, यह देखो....’ करके जोर-जोर चिल्लाने लगते हैं और कैमरामैन उस अपराधी को अपने कैमरे में कैद करने के लिए ऐसे जान लगा देता है जैसे वह कोई अपराधी न होकर ईश्वर तुल्य धर्मात्मा पुरुष हो, जिसके दर्शन करके चैनल के सारे दर्शक स्वयं को धन्य महसूस करेंगे| विश्व के शायद ही किसी देश में अपराधियों को इतना महिमामंडित किया जाता हो| हद तो तब हो गयी जब मेडिकल परिक्षण के लिए पुलिस जीप से उतारे गये अतीक और उसके भाई से पत्रकारों ने ‘सर’ का सम्बोधन करते हुए पूंछा कि ‘सर, कुछ कहना चाहेंगे आप|’ जिस देश का चौथा स्तम्भ अपराधियों की इतनी अधिक इज्जत करता हो, वहां के नवयुवक यदि यह कहते हैं कि वह बड़ा डॉन बनना चाहते हैं तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए| सम्भवता संविधान विशेषज्ञ ही यह बात समझ सकते हैं कि जब किसी अपराधी पर न्यायालय में मुकदमा चल रहा हो और वह न्यायिक हिरासत में हो तब मीडिया को उससे बातचीत करने का कोई औचित्य नहीं बनता है| लेकिन यहाँ तो अपराधियों से बाकायदा उनका इस्टेटमेंट लेने का प्रयास किया जाता है| इसका उद्देश्य भला क्या हो सकता है? अपराधी को बचाना, फंसाना या फिर उसका चेहरा दिखाकर चैनल की टीआरपी बढ़ाना| सत्य का उदघटन इसे कहा नहीं जा सकता| क्योंकि किसी भी अपराधी के दोषी या निर्दोष होने का सत्य उसके साथ नहीं बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में छुपा होता है| जहाँ कोई जाना नहीं चाहता है|

 

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