आजकल राजनीति अपने नए-नए रंग दिखा रही है। चुनाव के समय वोट पाने के लिए हर पार्टी के नेता जनता को लुभाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं और जनता को ऐसे-ऐसे चुनावी वादों से प्रलोभित करने की कोशिश करते हैं जिनसे प्रभावित होकर जनता उन्हें ही सबसे अधिक वोट दे। आजकल इस चुनावी दौर में राजनीतिक पार्टियों में एक नई होड़ लगी है, जनता को मुफ्त वैक्सीन प्रदान करने के वादे की होड़।
बिहार के आगामी चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। बिहार की जनता को मुफ्त में कोरोना वायरस की वैक्सीन उपलब्ध कराने का वादा प्रमुख राजनीतिक पार्टी द्वारा अपने घोषणापत्र में किया गया है। तमिलनाडु और मध्य प्रदेश की सरकारों ने भी अपने-अपने प्रदेश के लोगों को मुफ्त में कोरोना वायरस की वैक्सीन देने का ऐलान कर दिया है और अब लगता है कि आने वाले समय में सभी पार्टियों और नेताओं में ऐसा वादा करने की होड़ सी लग जाएगी। राजनीति के इस नए माहौल ने वोटों को वैक्सीन से जोड़ दिया है और वोटरों को मुफ्त में वैक्सीन दिए जाने के वादों को लेकर देश में एक नई बहस छिड़ गई है।
समय-समय पर भारत की राजनीति में भारतीय वोटरों को लुभाने के लिए नए-नए नारे प्रचलित होते रहे हैं। वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा एक मशहूर नारा दिया गया था ‘गरीबी हटाओ’, यह नारा काफी मशहूर हुआ था, किंतु इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी गरीबी नहीं हटी। 70 के दशक में एक और नारा प्रचलित हुआ था ‘रोटी,कपड़ा और मकान’, यह नारा इतना मशहूर हुआ था कि इस पर एक फिल्म भी बनाई गई थी। 90 के दशक में एक और नारा आया ‘बिजली,सड़क,पानी’। इसके बाद के दौर में लोन माफी, और मुफ्त में घरेलू सामान देने के चुनावी वादों की शुरुआत हुई।
आजकल के इस कोरोनाकाल में लोगों के स्वास्थ्य का मुद्दा सबसे ऊपर है। इसलिए राजनीतिक पार्टियां भी अपने चुनावी वादों में इसे ही अहमियत दे रही हैं। इससे पहले देश के नेता मुफ्त में खाने का वादा, लोन माफी का वादा, साइकिल बांटने का वादा, लैपटॉप बांटने का वादा, मुफ्त में मिक्सी देने का वादा, मुफ्त में कलर टीवी देने का वादा, साड़ियां बांटने और मुफ्त में चावल बांटने का वादा करते रहे हैं। पर अब मुफ्त में कोरोना वैक्सीन बांटी जाएगी और इसी के आधार पर नए चुनावी दौर में वोट दिए जाएंगे।
किंतु सच्चाई तो यह है कि रोटी, कपड़ा और मकान हो, सड़क, बिजली, पानी हो, या खतरनाक वायरस के खिलाफ वैक्सीन प्राप्त करना हो, ये सभी जनता के बुनियादी अधिकार हैं और ये उन्हें वैसे भी प्राप्त होने ही चाहिए। किंतु दशकों से राजनीतिक पार्टियां जनता के बुनियादी अधिकारों को चुनावी वादों का रूप देकर जनता को प्रलोभित और प्रभावित करने का प्रयत्न करती रही हैं।
सच्चाई तो यह भी है कि किसी महामारी की वैक्सीन बनाना और उसे सफलतापूर्वक लोगों तक उपलब्ध कराना इतना आसान काम नहीं है, इसमें वर्षों लग जाते हैं। किसी बड़ी बीमारी की वैक्सीन के रिसर्च, उसके ट्रायल और उसे आम लोगों तक पहुंचाने में औसतन 10 वर्ष तक का समय लग सकता है, इतिहास इस बात का गवाह है। उदाहरण के तौर पर पोलियो की वैक्सीन तैयार होने में 47 वर्ष लग गए, चिकन पॉक्स की वैक्सीन बनने में 42 वर्ष लग गए, इबोला की वैक्सीन बनने में 43 वर्ष लग गए और हेपेटाइटिस बी की वैक्सीन बनने में 13 वर्ष लग गए। एचआईवी एड्स के संक्रमण का पहला मामला वर्ष 1959 में आया था किंतु 61 वर्ष बीत जाने के बाद भी इसका इलाज अभी तक संभव नहीं हो पाया है।
लोगों के स्वास्थ्य और वैक्सीन को चुनावी मुद्दा बनाने की शुरुआत अमेरिका जैसे देशों में 80 के दशक में ही शुरू हो गई थी। वर्ष 1987 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने यह वादा किया था कि एड्स के खिलाफ वैक्सीन जल्द ही बना ली जाएगी। लेकिन 33 साल बीत जाने के बाद और एड्स से लगभग 77लाख लोगों की मृत्यु हो जाने के बाद भी इसकी वैक्सीन आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई है। 2020 के अमेरिकी चुनाव में राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक प्रत्याशी जो बिडेन ने भी ऐलान किया है कि यदि वह चुने गए तो देश के हर नागरिक को मुफ्त में कोरोना वैक्सीन दी जाएगी।
आज वैक्सीन नेशनलिज्म के नाम पर विभिन्न देशों के बड़े-बड़े नेता टीवी पर आकर वादा करते हैं कि कोरोना की वैक्सीन बस आने ही वाली है। बहरहाल अब लोगों के स्वास्थ्य का मुद्दा ही सबसे बड़ा राजनीतिक एजेंडा बन चुका है और यह एक अच्छी बात है कि नेताओं द्वारा लोगों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जा रही है क्योंकि जब व्यक्ति स्वस्थ होगा तभी वह जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हो पाएगा। इस बदलते दौर में अब चुनाव जाति-पाति पर आधारित न होकर स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रदूषण और नौकरियों पर आधारित होंगे।
रंजना मिश्रा ©️®️कानपुर, उत्तर प्रदेश