लेखक – इंद्र दमन तिवारी
हर बार आपदा अपने पीछे केवल त्रासदी ही नहीं अपितु अहम सकारात्मक सबक भी छोड़ जाती हैं, कोरोना के विश्वव्यापी संक्रमण ने दुनिया को अब तक अनेकों कटु अनुभव दिए हैं, एवं अनेकों महत्व के विषयों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है जो हम से ओझल हुए थे या हम जानबूझकर उसे नज़रअंदाज़ किये जा रहे थे,
हमने पाया कि इस भयाक्रांत परिदृश्य में जहाँ दुनिया के तमाम सुविधा-संसाधन संपन्न कहलाने वाले देश अलग थलग पड़े नज़र आते हैं वहीं कई सारे अभावों के पश्चात भी हम भारतीयों में अब तक बहुत हताशा नहीं दिखती है, इसकी वज़ह यहां का अटूट सामाजिक ताना बाना है..
आशा है कि सबके साथ एवं सहयोग से कुछ समय उपरांत हम सबका जीवन पुनः पूर्व स्थिति में वापस लौटेगा लेक़िन वहीं तस्वीर का स्याह पहलू ये है कि बहुत सारे लोगों की स्थिति अब वह नहीं होगी जो 24 मार्च से पहले थी एवं इस बात की पुख्ता पुष्टि दिल्ली-उप्र बॉर्डर पर 25 से 30 तारीख़ के बीच के दृश्य एवं केरल से आ रही हालिया तस्वीरें कर रही हैं। सरकारों की सक्रियता एवं सकारात्मक मानवीय संवेदनाओं के बदौलत प्रवासी लोगों का प्रवाह अब उत्तर भारत में कुछ थमता दिख रहा है मग़र अब यही सही मौका है जब सत्ता प्रतिष्ठान ईमानदारी से इस बात की तह तक जाएँ कि हमारे तंत्र में हासिये के लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बनने के लिए क्या क्या कदम उठाए जाने की महती आवश्यकता है..
यह तब तो औऱ जरूरी हो जाता है जब सरकार का 2018-19 का आर्थिक सर्वेक्षण स्वयं बताता है कि देश का हर तीन में से एक कामगार न्यूनतम मजदूरी कानून के अंतर्गत संरक्षित नहीं है, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में अपने मूल निवास से दूर जाकर काम करने वालों की आबादी लगभग 14 करोड़ थी, ज़ाहिर है कि गत वर्षों में इस तादाद में इज़ाफ़ा ही हुआ होगा..
इस संख्या में सर्वाधिक लोग उत्तर प्रदेश एवं बिहार से हैं..अब इन्हीं प्रदेशों के लोग सर्वाधिक मात्रा में पलायन क्यों करते हैं यह प्राथमिकता से सोचा जाने वाला गम्भीर विषय है..इनमें से अधिकतर दिहाड़ी मजदूर एवं असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोग हैं जो रोज कुँआ खोदकर रोज पानी पीते रहे हैं परंतु जब उन पर कोरोना की गाज गिरी तो ऐसे में उन्हें वह कुँआ ही सूखता नज़र आया..
हाल के दशकों में अप्रवासी भारतीयों के लिए तमाम बड़े आयोजन हुए हैं उन्हें आदर सत्कार के साथ विश्व के कोने कोने से स्वदेश बुला कर प्रोत्साहन तो दिया ही गया साथ ही उनके हितों हेतु अनेकों नीतियां बनायीं गयी हैं, यह उचित भी है किन्तु यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि देश के भीतर के ‘अपने’ प्रवासी कामगारों की पीड़ा किसी ने कब सुनी ?
वे असहाय लोग जो अपने लाचार परिजनों के साथ सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करने का हौसला लिए अपने गाँव की ओर आनन-फानन में चल पड़े, उन्हें आख़िर ऐसा क्यों करना पड़ा ? कुछ बदनसीबों के लिए तो ये उनका आख़िरी सफ़ऱ बन गया।
इस प्रकरण ने नीति निर्माताओं के समक्ष यह उज़ागर किया है कि इस मोर्चे पर वे पूर्ण रूपेण विफल साबित हुए हैं अभी औऱ मेहनत करने की आवश्यकता है ताक़ि फ़िर कभी दो वक़्त की रोटी की तलाश में ‘परदेश’ गए लोग औऱ उनकी मासूम संतानों के नन्हे पाँव थक हार कर सड़कों पर न पसरें ..