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31 साल पुराना मामला लंबित क्यों ,इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सिविल जज से 3 सप्ताह के भीतर जवाब माँगा
31 साल पुराना मामला लंबित क्यों । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सिविल जज से 3 सप्ताह के भीतर जवाब माँगा ।स्वतंत्र प्रभात प्रयागराज।उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर इस तथ्य को अपने निर्णयों के माध्यम से रेखांकित किया है कि डिक्री के निष्पादन में अनुचित देरी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यदि डिक्री
31 साल पुराना मामला लंबित क्यों ।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सिविल जज से 3 सप्ताह के भीतर जवाब माँगा ।
स्वतंत्र प्रभात
प्रयागराज।
उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर इस तथ्य को अपने निर्णयों के माध्यम से रेखांकित किया है कि डिक्री के निष्पादन में अनुचित देरी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यदि डिक्री धारक, डिक्री निष्पादित करने के बाद अपनी सफलता का फल लेने में असमर्थ होगा तो सफल पक्षकार का पूरा प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने बुधवार (29 जुलाई) को ऐसा ही मामला आया। अदालत ने यह पाया कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन), मोहम्मदाबाद, गोरखपुर के समक्ष एक मामला निष्पादन के लिए 31 वर्ष से लंबित है और उस पर आज तक फैसला नहीं हुआ है।नतीजतन, न्यायमूर्ति जे. जे. मुनीर की एकल पीठ ने सिविल जज (जूनियर डिवीजन) मोहम्मदाबाद, गोरखपुर से स्पष्टीकरण मांगते हुए एक आदेश पारित किया, ताकि मामले में निष्पादन में अब और देरी न हो।
न्यायालय ने कहा कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन), कोर्ट नंबर 1, मोहम्मदाबाद, गोरखपुर, जिनके समक्ष वर्ष 1989 का निष्पादन केस नंबर 7 भोला बनाम सतीराम लंबित है, वे अगले तीन सप्ताह के भीतर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करेंगे कि यह मामला, जो अब 31 साल पुराना हो गया है, अभी भी लंबित क्यों है और इसका फैसला क्यों नहीं किया गया है। कोर्ट ने यह भी कहा कि टिप्पणी को तीन सप्ताह के भीतर इस अदालत में प्रस्तुत किया जाना चाहिए और किसी भी हाल में, अदालत द्वारा तय की गई तारीख के बाद नहीं। साथ ही, न्यायालय द्वारा यह निर्देश दिया गया था कि वर्तमान आदेश को सिविल जज (जूनियर डिवीजन), कोर्ट नंबर 1, मोहम्मदाबाद, गोरखपुर, को 48 घंटे के भीतर संयुक्त रजिस्ट्रार (अनुपालन) द्वारा जिला न्यायाधीश गोरखपुर के माध्यम से सूचित किया जाए।यह मामला 20.अगस्त 2020 के लिए अगली सुनवाई हेतु पोस्ट किया गया है।
गौरतलब है कि वर्ष 1872 में प्रिवी काउंसिल ने जनरल मैनेजर ऑफ़ द राज दरभंगा बनाम महाराज कुमार रामापूत सिंह [(1871-1872) 14 MIA 605: 20 ER 912] के मामले में डिक्री के निष्पादन में डिक्री धारक के सामने आने वाली कठिनाइयों से संबंधित एक टिपण्णी करते हुए कहा था कि “…. भारत में एक मुकदमेबाज की मुश्किलें तब शुरू होती हैं जब उसे एक डिक्री प्राप्त हो जाती है।”
इसके अलावा, बाबू लाल बनाम मैसर्स हजारी लाल किशोरी लाल एवं अन्य (1982) 1 एससीसी 525 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा था कि: – “29. प्रक्रिया, न्याय के कारण को आगे बढ़ाने के लिए है और इसे मंद करने के लिए नहीं है। डिक्री धारक की कठिनाई उसके द्वारा प्राप्त डिक्री के अनुसार कब्जा प्राप्त करने से शुरू होती है।” फिर, सत्यवती बनाम राजिंदर सिंह और अन्य (2013) 9 SCC 491 के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने यह टिप्पपणी की थी कि, “16. जैसा कि हमारे द्वारा यहां कहा गया है, आज तक स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। हम दृढ़ता से महसूस करते हैं कि एक डिक्री के निष्पादन में अनुचित देरी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यदि डिक्री धारक अपनी डिक्री निष्पादित होने के जरिये अपनी सफलता के फल का आनंद लेने में असमर्थ है तो सफल पक्षकार का पूरा प्रयास व्यर्थ हो जाएगा ।
प्रयागराज ब्यूरो से दया शंकर त्रिपाठी के साथ कानून के जानकार वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।
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