प्रदेश की अर्थव्यवस्था के अनुरूप हों चुनावी घोषणाएँ
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लोकतंत्र में चुनाव केवल सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि जनहित और नीति-निर्माण की दिशा तय करने का माध्यम होते हैं। जनता हर बार यह उम्मीद करती है कि जो भी दल सत्ता में आए, वह उसके जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाएगा। परंतु आज के परिदृश्य में चुनावी घोषणाएँ विकास के विज़न से अधिक लोकलुभावन प्रतिस्पर्धा का रूप ले चुकी हैं। राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे बढ़ने के लिए ऐसे वादे करने लगे हैं जो प्रदेश की आर्थिक स्थिति और संसाधनों की सीमा से बहुत दूर हैं।
हर चुनाव में “मुफ्त बिजली”, “गैस सिलेंडर”, “बेरोजगारी भत्ता”, “लैपटॉप”, “यात्रा सुविधा” और यहाँ तक कि “नकद राशि” देने जैसी घोषणाएँ सुनने को मिलती हैं। ये वादे जनता को आकर्षित तो करते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य की अर्थव्यवस्था इतने बोझ को वहन कर सकती है? अधिकांश राज्यों के बजट पहले से ही घाटे में हैं। ऐसे में अव्यवहारिक घोषणाएँ न केवल आर्थिक संतुलन बिगाड़ती हैं, बल्कि आने वाली सरकारों को कर्ज और वित्तीय संकट की ओर धकेल देती हैं।
राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि वादे केवल चुनाव जीतने का माध्यम नहीं, बल्कि शासन की जवाबदेही का आधार होते हैं। जब कोई दल असंभव घोषणाएँ करता है, तो वह जनता के विश्वास के साथ-साथ राज्य की वित्तीय साख से भी खिलवाड़ करता है। अतः आवश्यक है कि चुनावी घोषणाएँ प्रदेश की अर्थव्यवस्था, बजट और राजस्व की वास्तविक स्थिति के अनुरूप हों।
इस दिशा में राजनीतिक दल, चुनाव आयोग और वित्तीय संस्थानों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। चुनाव आयोग को निम्न प्रावधान लागू करने पर विचार करना चाहिए :
(अ)प्रत्येक दल अपने घोषणापत्र के साथ आर्थिक व्यौरा प्रस्तुत करे, जिसमें बताया जाए कि वादों की पूर्ति के लिए धन कहाँ से आएगा।
(ब)राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के एक निश्चित प्रतिशत से अधिक के आर्थिक भार वाले वादों को अस्वीकार्य घोषित किया जाए।
(स) राजनैतिक दलों की सहमति से स्वतंत्र आर्थिक समीक्षा समिति गठित की जाए, जो चुनावी घोषणाओं की व्यवहार्यता का मूल्यांकन करे और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करे।
(द)असंभव या भ्रामक वादों पर दंडात्मक प्रावधान हो, ताकि राजनीतिक ईमानदारी बनी रहे।
भारत की वित्तिय संस्थाएं तथा अर्थशास्त्री समय-समय पर “फ्रीबी कल्चर” को लेकर चेतावनी दे चुके हैं। सभी का स्पष्ट मत है कि मुफ्त योजनाओं की अंधी दौड़ दीर्घकाल में आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा है। ऐसे में वित्तीय अनुशासन को चुनावी प्रक्रिया से जोड़ना न केवल आवश्यक, बल्कि लोकतंत्र की सेहत के लिए अनिवार्य हो गया है।
यदि राजनीतिक दल वास्तव में जनसेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें चाहिए कि वे वादों की संख्या नहीं, गुणवत्ता बढ़ाएं। ऐसी घोषणाएँ करें जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, जल, पर्यावरण और स्वावलंबन से जुड़ी हों तथा राज्य के विकास केन्द्रित हो। सभी को ध्यान रखना होगा कि मुफ्त की वस्तुएँ नहीं, बल्कि सृजन के अवसर देना ही सच्चा जनकल्याण है।
“प्रदेश की अर्थव्यवस्था के अनुरूप घोषणाएँ” केवल एक नीति नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रतिबद्धता होनी चाहिए। जब चुनावी वादे संसाधनों की वास्तविकता पर आधारित होंगे, तब न केवल शासन विश्वसनीय बनेगा, बल्कि लोकतंत्र भी अधिक परिपक्व होगा।
निष्कर्ष रूप में मैं कहना चाहूंगा कि लोकतंत्र में घोषणाएँ आवश्यक हैं, परंतु वे तभी सार्थक हैं जब वे प्रदेश की आर्थिक सीमाओं में रहते हुए जनता के दीर्घकालिक हित को साधें। अतः अब समय है कि देश की राजनीति लोकलुभावन वादों से आगे बढ़कर वित्तीय उत्तरदायित्व की दिशा में कदम बढ़ाए , तभी लोकतंत्र जनकल्याण का वास्तविक माध्यम बन सकेगा।
लेखक: प्रो. (डा.) मनमोहन प्रकाश
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