दक्षिण एशिया में विदेशी साजिश के संकेत और मोदी की सुरक्षा का प्रश्न

दक्षिण एशिया में विदेशी साजिश के संकेत और मोदी की सुरक्षा का प्रश्न

दक्षिण एशिया आज वैश्विक भू-राजनीतिक मानचित्र का वह केंद्र बन चुका है, जहाँ विश्व की महाशक्तियों – अमेरिका, चीन और रूस – की प्रतिस्पर्धा और उनके रणनीतिक सहयोग दोनों की जटिल रेखाएँ एक दूसरे को काटती हैं।

 

इस क्षेत्र में इन प्रमुख देशों के हित गहराई से उलझे हुए हैं, और भारत, अपनी बढ़ती आर्थिक एवं सैन्य शक्ति तथा विश्व मंच पर अपनी स्वतंत्र और निर्णायक भूमिका के कारण, स्वाभाविक रूप से इस भू-राजनीतिक संघर्ष का केंद्र बन गया है। भारत की यह स्वतंत्र नीति, जो किसी एक ध्रुव पर निर्भर न रहकर बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की वकालत करती है, कुछ वैश्विक शक्तियों के रणनीतिक हितों के विपरीत खड़ी है, और इसी कारण भारत के शीर्ष नेतृत्व एवं उसकी सुरक्षा को लेकर खतरे और अटकलें बढ़ गई हैं।

 

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हाल ही में बांग्लादेश की राजधानी ढाका में अमेरिकी स्पेशल फोर्स अधिकारी टेरेंस अर्वेल जैक्सन की रहस्यमय मौत ने इन भू-राजनीतिक आशंकाओं को एक बार फिर सतह पर ला दिया है। 31 अगस्त को हुई यह घटना सामान्य नहीं कही जा सकती, खासकर इसलिए क्योंकि यह ऐसे समय पर हुई जब भारत, रूस और चीन के बीच रणनीतिक स्तर पर संवाद गहरा रहा था।

 

इसी अवधि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की चीन में एक गोपनीय 45 मिनट की बैठक संपन्न हुई थी। इस संयोग को अंतर्राष्ट्रीय खुफिया हलकों में महज दुर्घटना के रूप में नहीं देखा गया। ‘ऑर्गनाइजर’ पत्रिका की रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि अमेरिकी अधिकारी की तैनाती का उद्देश्य केवल क्षेत्रीय सुरक्षा नहीं था, बल्कि वह भारत से जुड़े किसी गुप्त मिशन की योजना का हिस्सा हो सकता था। यदि यह दावा सत्य सिद्ध होता है, तो यह दक्षिण एशिया में एक नए और गंभीर खुफिया संघर्ष की शुरुआत का संकेत होगा, जिसका लक्ष्य भारत की स्वतंत्र नीतिगत दिशा को नियंत्रित या कमजोर करना हो सकता है।

 

अमेरिकी खुफिया एजेंसी, सीआईए, पर पहले से ही अन्य देशों की राजनीति को अपने अनुकूल ढालने के लिए गुप्त अभियानों में संलग्न रहने के आरोप लगते रहे हैं। ईरान में 1953 की सत्ता पलट, चिली और निकारागुआ में शासन परिवर्तन, तथा अफगानिस्तान में दीर्घकालिक गुप्त हस्तक्षेप इसके ऐतिहासिक उदाहरण हैं।

 

दक्षिण एशिया में भी अमेरिका की सक्रियता नई नहीं है; पाकिस्तान को रणनीतिक सहयोगी बनाकर उसने भारत पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाए रखने की कोशिश की है, जबकि बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में उसकी नीति राजनीतिक और सैन्य प्रभाव दोनों बढ़ाने की रही है। ऐसे में, यदि ढाका में किसी अमेरिकी अधिकारी की संदिग्ध मृत्यु होती है और उसके तार भारत की सुरक्षा या प्रधानमंत्री मोदी को लक्ष्य बनाने की किसी साजिश से जोड़े जाते हैं, तो यह महज अफवाह नहीं बल्कि गंभीर चिंता का विषय है, जो इस क्षेत्र में विदेशी हस्तक्षेप की बढ़ती जटिलता को दर्शाता है।

 

भारत और रूस के बीच वर्षों से मजबूत खुफिया सहयोग रहा है, विशेषकर आतंकवाद-रोधी अभियानों में। यह माना जा रहा है कि यदि वास्तव में किसी विदेशी एजेंसी ने प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ कोई गुप्त अभियान तैयार किया था, तो वह भारत-रूस की सूचनात्मक साझेदारी और संयुक्त कार्रवाई की वजह से विफल हुआ।

 

यह तथ्य बताता है कि भारत की सुरक्षा व्यवस्था अब किसी भी अंतरराष्ट्रीय दबाव के प्रति पहले से कहीं अधिक सजग और सक्षम है। इस घटनाक्रम के कुछ ही दिनों बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में सेमीकॉन शिखर सम्मेलन में हल्के-फुल्के अंदाज में की गई अपनी टिप्पणी से राजनीतिक पर्यवेक्षकों को संकेत दिया कि हाल में कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिन्होंने उनकी सुरक्षा और विदेश यात्राओं से जुड़े जोखिमों को एक नई दृष्टि से परखने की आवश्यकता पैदा की है।

 

आज की दुनिया में संघर्ष केवल सीमाओं पर सैन्य बलों के बीच नहीं लड़ा जाता, बल्कि सूचना, तकनीक, अर्थव्यवस्था और गुप्त अभियानों के मोर्चे पर भी 'साइलेंट वॉरफेयर' (मौन युद्ध) के रूप में चल रहा है। खुफिया एजेंसियों की भूमिका पहले से कहीं अधिक जटिल और गुप्त हो चुकी है।

 

ढाका की घटना इसी गुप्त युद्ध का एक हिस्सा प्रतीत होती है, जहां लक्ष्य सिर्फ कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक राष्ट्र की नीतिगत दिशा होती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक और तेजी से उभरते देश के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मित्र देशों, विशेषकर रूस जैसे विश्वसनीय सहयोगियों, के साथ सूचना और सुरक्षा सहयोग बनाए रखते हुए किसी भी विदेशी हस्तक्षेप के प्रति अत्यधिक सतर्क रहे।

 

हालांकि इस रिपोर्ट और साजिश के दावों की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, और अमेरिकी पक्ष ने भी इस मृत्यु पर कोई विस्तृत बयान नहीं दिया है, लेकिन यह घटना दर्शाती है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भरोसे और संदेह के बीच की रेखा कितनी पतली होती जा रही है। भारत के लिए यह एक संवेदनशील समय है। जैसे-जैसे वह वैश्विक शक्ति समीकरण में अपनी स्वतंत्र पहचान मजबूत कर रहा है, वैसे-वैसे उसके नेतृत्व और नीति-निर्माताओं पर बाहरी दबाव बढ़ना स्वाभाविक है।

 

इसलिए भारत की सुरक्षा एजेंसियों को अब केवल पारंपरिक सुरक्षा नहीं बल्कि रणनीतिक चेतावनी और पूर्वानुमान की भूमिका निभानी होगी। भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के इस दौर में, भारत को अपनी संप्रभुता और नेतृत्व की सुरक्षा दोनों सुनिश्चित करनी होंगी। यह समय आत्ममुग्धता का नहीं, बल्कि गहरी रणनीतिक सतर्कता का है। विदेशी खुफिया गतिविधियों से लेकर साइबर निगरानी तक, हर स्तर पर भारत को अपनी सुरक्षा प्रणाली को सशक्त बनाना होगा, क्योंकि दक्षिण एशिया का भविष्य वैश्विक संघर्ष और सहयोग के केंद्र के रूप में ही आकार लेगा।

 

महेन्द्र तिवारी

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