किस ओर जा रहा समाज?
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आइए! आज बात करते हैं विकसित भारत की। भारत की आज़ादी के 77 वर्ष बीत गए। इतने वर्षों में जनसंख्या भी बढ़ी और हमारा जीवन स्तर भी आधुनिक हो गया। आज विश्व के अन्य देशों के साथ हम भी वैज्ञानिक युग की राह पर हैं। परन्तु क्या सच में बदलाव आया? कुछ समय पहले तक मनोरंजन के लिए टेलीविज़न और रेडियो हुआ करते थे। लगभग हर घर के बच्चे और युवा गुल्ली-डंडा, खो-खो, लूडो, कैरम खेला करते थे। लेकिन आज के तकनीकी युग में, जहां हर हाथ में स्मार्टफोन है, हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं। इस युग में हर चीज़ मशीनी हो गई है, चाहे वह खेल हो, पढ़ाई हो या मनोरंजन। इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में खबरें और लोगों की मानसिकता हवाई जहाज़ से भी तेज़ उड़ रही हैं।
तकनीक बढ़ी, शिक्षा बढ़ी, डिग्रियाँ भी बढ़ीं, और लोग डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, तथा जज जैसे ऊँचे पदों पर पहुँच रहे हैं। लेकिन हमारे समाज और उसकी मानसिकता में बदलाव क्यों नहीं आया? क्या डिग्रियाँ और पद सिर्फ़ कमाने का ज़रिया हैं? क्या स्वस्थ समाज के निर्माण की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?
स्त्री अस्मिता की लड़ाई सदियों से चली आ रही है, जिसमें आज भी हम पूरी तरह जीत नहीं सके हैं। लेकिन अब इस लड़ाई के बीच एक नई समस्या जुड़ गई है—‘महिला कानून का दुरुपयोग।’ स्त्री अस्मिता की सुरक्षा और समानता की जंग में जिन चीज़ों में सुधार लाना था, उसमें तो हम सफल नहीं हो पाए, लेकिन बराबरी की ज़िद्द कहें या बदले की भावना, एक नई सामाजिक गंदगी जन्म ले चुकी है। अब समझ नहीं आता कि महिलाओं के अधिकारों की बात की जाए या बराबरी की अंधी दौड़ में वे जो विवेकहीन रास्ते अपना रही हैं, उन्हें रोका जाए?
एक कहावत है, "दुनिया चाँद पर चली गई और गाँव में अब भी डायन है।" आज भी हमारे समाज में लोग चाहे कितने भी पढ़े-लिखे क्यों न हों, आपसी रंजिश में माँ-बेटियों और बहनों को ही गाली देते हैं। पहले ये चीज़ें सिर्फ़ सुनने और बोलने तक सीमित थीं, लेकिन अब सोशल मीडिया के दौर में खुलेआम माँ-बहनों के नाम पर गालियाँ लिखी और बोली जा रही हैं। यहाँ कोई रोक-टोक नहीं है। अश्लीलता की सारी हदें पार की जा रही हैं।
इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर तो अब बड़े-बड़े 'जज' बैठे हैं, जो कोई भी न्यूज़ आते ही उसे वायरल कर इंसाफ़ कर देते हैं। इन्हें तर्क और तथ्य से कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि ये स्वयंभू 'अंतर्यामी' होते हैं।
अब भी समाज के इंसाफ़ का अंतिम भरोसा देश की न्यायपालिका है। लेकिन अब इस पर से भी भरोसा उठने लगा है। न्याय का स्थान ईश्वरीय होता है, और यदि न्याय की कुर्सी पर कुंठित मानसिकता के लोग विराजमान हो जाएँ, तो वह भी शोषण का माध्यम बन जाती है।
आजकल जिस तरह से न्यायाधीशों के विवादास्पद बयान सामने आ रहे हैं, वे चिंता का विषय हैं। किसी ने कहा, "पत्नी से अप्राकृतिक संबंध बनाना बलात्कार नहीं है।" किसी और ने कहा, "लड़की के प्राइवेट पार्ट को हाथ लगाना बलात्कार जैसा नहीं है।" जब इस तरह की स्त्री-विरोधी मानसिकता वाले लोग न्याय की कुर्सी पर बैठे हों, तो इस देश की स्त्रियाँ उनसे न्याय की उम्मीद कैसे करें?
न्याय की कुर्सी पर बैठकर ऐसी बयानबाज़ी करने वालों को यह समझना चाहिए कि उनके ये शब्द पूरे समाज की महिलाओं का मानसिक शोषण करते हैं। ऐसा लगता है कि इस समाज में सड़क से लेकर कोर्ट तक, स्त्री अस्मिता सबसे सस्ती चीज़ है। अगर सच में न्याय की बात करनी है, तो सबसे पहले न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा करनी होगी और कुंठित मानसिकता वाले व्यक्तियों को वहाँ पहुँचने से रोकना होगा।
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