मनुष्यों के अमानवीकरण की महापरियोजना

मनुष्यों के अमानवीकरण की महापरियोजना

देश और दुनिया में जो अघट घट रहा है, उसे एक आयामी रूप में, मतलब जैसा है सिर्फ वैसा, जितना दिखाया जा रहा है सिर्फ उतना देखने से, न कुछ समझा जा सकता है, ना ही बूझा जा सकता है और बिना समझे-बूझे किसी विकार के नकार या प्रतिकार की कोई उम्मीद करना वास्तविकता में तो क्या, ख्यालों में भी संभव नहीं है। भारत से बरास्ते फिलिस्तीन, अमरीका तक जो हो रहा है वह, जैसा कि इस हो रहे से असहमत कुछ मित्र मानते हैं, सिर्फ अब तक के कैंजियन अर्थशास्त्र से निकले कथित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को कब्र में दफन करने के साथ समूचे आर्थिक ढांचे का पैशाचीकरण नहीं हैं ;  वह सिर्फ राजनीति के लंपटीकरण का और पराभव हो कर सांघातिक वायरस का नया रूप,  अपराधीकरण में कायांतरित हो जाना भर भी नहीं है। यह विषैली हवा के बादलों का समाज, धर्म, साहित्य, संस्कृति, जीवन मूल्य यहाँ तक कि परिवार सहित सब कुछ को अपने धृतराष्ट्र आलिंगन में लेना भर ही नहीं है। यह उससे कही ज्यादा आगे का, कही अधिक खतरनाक घटनाविकास है ; *ग्रैंड प्रोजेक्ट ऑफ़ डेमोनाईजेशन* है, मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना है ।

 एक ऐसी महापरियोजना है, जिसका मकसद अब तक की उगी सारी फसल को चौपट करना भर नहीं, धरती को बंजर बनाना और मानव समाज द्वारा अभी तक विकसित, संकलित, परिवर्धित कर संग्रहित किये गये सभी बीजों को भी हमेशा के लिए नष्ट कर देना है। यह परियोजना महा परियोजना इसलिए है कि इस काम में सत्ता के सारे साधन और संसाधन, प्रतिष्ठान और संस्थान पूरी शक्ति के साथ चौबीसों घंटा, सातों दिन भिड़े हुए हैं ; ऐसा कोई उपाय नहीं है जिसे छोड़ा हो, ऐसा कोई करम नहीं है जो किया न हो। वे मनुष्य से उसके स्वाभाविक गुणों, अनुभूति और  अहसासों, आचरण और बर्तावों के मानवीय संस्कारों को छीन लेना चाहते हैं, एक नया मनुष्य गढ़ना चाहते हैं, ऐसा प्राणी जो दिखने में तो हो मनुष्य जैसा, मगर सिर्फ दिखने में हो, वास्तव में मनुष्य जैसा न बचे।

 हालांकि इसमें कुछ नया नहीं हैं ; स्थापित सत्य  पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का यह लक्ष्य है कि वह लोगों के लिए माल पैदा करने तक ही सीमित नहीं होती, बल्कि उसी के साथ-साथ अपने माल के लिए लोग भी पैदा करती है। इस बार नया यह है कि यह काम कुछ ज्यादा ही बेशर्मी और कुछ ज्यादा ही तेज रफ़्तार से किया जा रहा है। इतनी धड़ाधड़ और ऐसी योजनाबद्धता के साथ किया जा रहा है कि जिन बातों, घटनाओं पर अब तक स्तब्ध, आहत और आक्रोशित होने का भाव उमड़ना एकमात्र स्वभाव होता था, उन्हें पहले आम बनाया गया ; फिर धीमी, किन्तु लगातार तेज होती गति से बर्दाश्त करने तक लाया गया और अब उसका आनंद लेने, उसे एन्जॉय करने की हद तक पहुंचा दिया गया है। यदि यह यहीं नहीं थमा, तो अगली स्टेज उनमे शामिल करवाने की होने वाली है ; जो शुरू भी हो चुकी है।

1003828883

 राजनीतिक मंचों से इस परियोजना को दिनों दिन छीजते और नीचे से नीचे गिरते स्तर तक लाने की जैसे भाजपा ने सुपारी ही ले ली है। झारखण्ड के चुनाव अभियान में इसके सह चुनाव प्रभारी असम के मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हिमंता विषशर्मा धड़ल्ले के साथ विष फैलाने में लगे हैं। नफरती अभियान को उग्र से उग्रतर करते हुए वे जिस तरह की भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह खुद भाजपा के अपने पैमाने से भी ज्यादा ही आक्रामक और उकसावेपूर्ण है। यह इस एक अकेले बंदे या निशिकांत दुबे जैसे दूसरे उत्पाती भाजपाईयों तक सीमित नहीं रहा, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ‘घुसपैठिया’ के रूपक के जरिये इसके साथ जुगलबंदी कर रहे हैं ; इस बार तो उन्होंने जैसे सारी दिखावटी मर्यादाओं की भी कपाल क्रिया करने की ठान ली है । मंगलसूत्र छीन लेंगे, भैंस छीन लेने के अब तक के न्यूनतम स्तर को उन्होंने झारखण्ड की सभाओं में ‘बेटियाँ छीन लेंगे’ की बात कहकर और भी अधिक नीचाई तक पहुंचा दिया है। यह सिर्फ मुंहबोली बातें नहीं रही, इनके साथ ताल से ताल मिलाकर मैदानी कार्यवाहियां भी जारी हैं। सीमांचल के जिलों में निकाली गयी केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की आग लगाऊ यात्रा के बाद अब बिहार में भी बहराईच दोहराया जाना शुरू हो गया है। भागलपुर की एक मस्जिद में घुसकर उसमे तोड़फोड़ करना और भगवा झंडा लहराने की हरकत इसी की कड़ी में है और उनका इरादा सिर्फ प्रतीकात्मक कार्यवाहियों तक सीमित नहीं रहने वाला, सिर्फ झारखंड चुनाव भर तक नहीं चलने वाला ; संघ के शताब्दी वर्ष को यह कुनबा इसी तरह मनाने का इरादा रखता है।

 पहले इस तरह की बयानबाजी बकवास मानी जाती जाती रही, लोग इनसे कतराते रहे, ऐसा करने वालों को हाशिये पर ही समेट कर बिठाये रहे। मगर अब इन्हें स्वीकार्यता प्रदान करवाने के लायक माहौल बनाने के लिए पूरी सत्ता अपनी अष्ट से लेकर चौंसठ भुजाओं को सिम्फनी की तरह लयबद्ध बनाने में लगी हुई है। समय-समय पर न्यायालयों, यहाँ तक कि उच्च न्यायालयों तक के जजों की निराधार, गैर जिम्मेदार और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम जज के अपने फैसलों के बारे में दी गयी अजीब और हैरत में डाल देने वाली स्वीकारोक्ति, संविधान द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित किये जाने के बाद भी सत्ता के साथ खुल्लमखुल्ला मेल मिलाप, इसी तरह के अनुकूलन, धीरे-धीरे लोगों के मानस ढालने की परियोजना का एक अंग है। इस सबके बीच ढाला जा रहा है वह प्राणी, जो बिना किसी शर्म के मुंबई में भंडारे का प्रसाद देने के पहले, चार या उससे भी कम पूड़ियों को देने, पहले से 'जै श्रीराम' बुलवाने की शर्त लगाने की बेशर्मी दिखाता है।

 असभ्यता को क्रूरता से निर्ममता होते हुए बर्बरता को श्रेष्ठता बताने की हद तक ले जाना, जघन्यों को अभयदान देते हुए उन्हें प्रतिष्ठित करना समाज को उस दिशा में धकेल देने की महापरियोजना है जिसे राजनीतिक भाषा में दक्षिणपंथ कहा जाता है। पिछले तीन दशक से खरपतवार की तरह फ़ैल रहा यह रोग अब भांति-भांति की विषबेलों के रूप में समाज और उसके अब तक के हासिल को जकड़ रहा है । लोकतंत्र से बैर, विवेक और तर्क, तथ्यों पर आधारित सत्य से चिढ़, गरीब, वंचित, असहाय और उपेक्षितों से नफरत इसकी विशेषता है। कहीं अश्वेत, कहीं मैक्सिकन या अफ्रीकी, सभी जगह निर्धन और महिला, शरणार्थी, बच्चे और विकलांग -- भारत में इनके अलावा जाति, वर्ण, संप्रदाय आदि निशाना चुनने के इनके आधार हैं । 

 यूं तो इसके अनेक उदाहरण हैं, मगर फिलहाल इस सप्ताह घटी कुछ घटनाओं को देखने से ही इस महापरियोजना की झलक मिल जाती है। फ़िलिस्तीन की गज़ा पट्टी में अमरीका की गोद में बैठी इजरायली फौजों की वहशी दरिंदगी का एक और घिनौना नमूना फिलिस्तीनी बच्चों के नरसंहार के बाद उनके खिलौनों को अपनी ‘जीत की ट्राफी’ की तरह टैंकों और तोपों पर सजाकर दिखाना, मारे गए बच्चों के खिलौनों पर झूला झूलते हुए वीडियो बनाकर उन्हें सार्वजनिक करना और खुद को विश्व लोकतंत्र के स्वयंभू दरोगा दीवान मानने वाले अमरीका, ब्रिटेन जैसे देशों के शासकों और मीडिया द्वारा इस ‘कारनामे’ पर या तो चुप्प रहना या उसकी हिमायत करना, इसी तरह के अनुकूलन का हिस्सा है।

 इसी का एक और विद्रूप रूप एक बार और अमरीका का राष्ट्रपति बन चुके डोनाल्ड ट्रम्प का हैती के शरणार्थियों, आप्रवासियों के प्रति नफरत भड़काने की नीयत से दिया गया बयान है। पहले ट्रम्प के सोशल मीडिया गैंग ने यह फैलाया, बाद में खुद उसने राष्ट्रपति उम्मीदवारों की राष्ट्रीय बहस में आव्रजन के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा कि "हैती से आये आप्रवासी कुत्तों को खा रहे हैं, वे बिल्लियों को खा रहे हैं। वे वहां रहने वाले लोगों के पालतू जानवरों को खा रहे हैं, और यही हमारे देश में हो रहा है, और यह शर्मनाक है।" इस तरह की बकवास करने वाले ट्रम्प अकेले नहीं हैं, उनके जैसे अनेक शासक हैं, जो अपने-अपने निजाम की असफलताओं को ढांकने के लिए इस या उस बहाने किसी न किसी वंचित समूह के खिलाफ उन्माद भड़का रहे हैं। इस तरह के झूठ में विश्वास करने वाले लोग तैयार कर रहे हैं।

 यह किस महीनता से किया जाता है, इसकी एक देसी मिसाल अम्बाला रेलवे स्टेशन की चर्चा में आयी और खूब वायरल हुई एक तस्वीर के उदाहरण से समझा जा सकता है। इसमें रेलगाड़ी में जगह न मिलने के चलते दो युवा प्रवासी मजदूर एक खिड़की से अपने बैग और पोटलियां बाँध लेते हैं और रेल के डब्बे की खिड़की के बाहर दोनों तरफ गमछा बांधकर खुद को लटका लेते हैं और इस तरह नवम्बर की सर्दी में अपनी कम-से-कम 24 घंटे की यात्रा शुरू कर देते हैं। यह विचलित करने वाली तस्वीर देश के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन रेलवे की मोदी राज में हुई दुर्दशा और देश के नागरिकों के साथ किये गए आपराधिक बर्ताव का दस्तावेजी सबूत है। मगर बजाय इसकी समीक्षा कर असली कारणों की पड़ताल कर इस स्थिति के दोषियों की शिनाख्त करने के, बजाय इस पर बहस करने के कि किस तरह रेल परिवहन का अभिजात्यीकरण किया जा रहा है, अनारक्षित जनरल डब्बे ख़त्म करके, स्लीपर कोच की संख्याओं को आधा या उससे भी कम करके, ए सी डब्बों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा करके और आम प्रचलन की रेल गाड़ियों को बंद कर उनकी जगह गतिमान, अन्दे वन्दे भारत, नमो भारत, नमो भारत रैपिड रेल जैसी सुपर अभिजात्य गाड़ियों की भरमार कर देश की लाइफ लाइन कही जाने वाली भारतीय रेल को कितनी योजनाबद्ध साजिश से देश की 80-90 फीसदी जनता की पहुंच से बाहर किया जा रहा है। यही काम सड़क परिवहन की बसों के साथ भी हो रहा है, राज्य सरकारों के परिवहन महकमे बंद करने के बाद शुरू हुई प्रक्रिया परिवहन के सस्ते और उपलब्ध वाहनों को महंगे और अत्यंत महंगे वाहनों से प्रस्थापित कर बहुमत जनता तक उनकी पहुँच को बाधित कर चुकी है।

 चर्चा इस पर होनी चाहिये थी कि जब दुनिया के कई विकसित देश दोबारा से सस्ते सार्वजनिक परिवहन की बहाली की ओर लौट रहे हैं, तो यहाँ क्यों उल्टी गंगा में बाढ़ लाई जा रही है। मगर ऐसा करने की बजाय पीड़ित को ही दोषी ठहराते हुए यह निष्कर्ष परोसा जाता है कि "लेकिन बोगी में बैठे किसी यात्री ने इन दोनों को भीतर लाने की कोशिश तक नहीं की।" और यही बात बाकियों द्वारा भी जस की तस दोहराई जाने लगती है। इस तरह  फ़िक्र पैदा करने वाली इस तस्वीर से भी ज्यादा चिंतित करती है इस छवि को पढ़ने या उसे पढ़वाने की कोशिश, उसके जरिये बनाया जाने वाला मानस,  ढाला जा रहा सोचने-विचारने, देखने और समझने का ख़ास नजरिया। मतलब ये कि गुनहगार रेल के इस डिब्बे में 'बैठी' सवारियाँ हैँ। उन्हें ही दोषी मानिये, उन्हें ही धिक्कारिये, उन्हें ही गरियाइये। जिस तरह दिखाया जा रहा है, उसी तरह देखिए और दिखाइये। क्या सच में उस बोगी के दरवाजे के खुलने की कोई गुंजाइश थी? जिस खिड़की से बैग बांधे गये हैँ, उसे ध्यान से देखिये, जरा सी जगह में कम-से-कम कम तीन प्राणी नजर आ रहे हैँ, जो एक वर्ग फुट से भी कम स्थान में खिड़की से चिपके खडे हैँ। उनके आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दाँए, बांए कितने होंगे? जिन्होंने कभी इस तरह के डब्बो में सफऱ नहीं किया, वे इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते कि इस तरह तरह ठसकर, आलू-प्याज के बोरों से भी बुरी हालत में लिपट कर, सिमट कर क्यों जा रहे हैँ ये लोग?

 इस तरह की मिसाल और भी हैं, बल्कि हाल के दिनों में कुछ ज्यादा ही हैं। इस महापरियोजना के सूत्रधार दक्षिणपंथ के भेड़िये को जिस उत्तर आधुनिकता के लबादे में छुपाकर, उसे विचारधारा बताकर गले उतारना चाहते हैं, वह और कुछ नहीं, पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने के बाद उसके फासिज्म तक पहुँचने का जीपीएस है, जिसका इरादा मनुष्यता का निषेध कर दुनिया को पाषाणकाल में पहुंचा देने का है। विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम खोजों को इसे और तेजी देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। ए आई, कृत्रिम बुद्धिमत्ता को यह भस्मासुर अपना नया औजार बनाने की फ़िराक में है। एलन मस्क ने एलान किया है कि वह एक ऐसा मोबाइल बनाने जा रहा है, जिसे न बैटरी चार्जर की जरूरत होगी, न इन्टरनेट की ; इस तरह दुनिया के पूरे सूचनातंत्र पर एक दुष्ट का कब्ज़ा होने की आशंका सामने दिखाई दे रही है। इसके क्या असर होंगे, इसे पिछले 10-12 वर्षों में भारत के मीडिया के प्रभाव से समझा जा सकता है ।

 दुनिया में पूंजीवाद का यह भस्मासुरी अवतार उस उजाले और चमक को खत्म कर देना चाहता है, जिसे मनुष्य समाज ने 1917 की 7 नवम्बर को हुई उस महान समाजवादी क्रांति के बाद देखा था, जिसने दुनिया हमेशा के लिए बदल दी थी। इस दिन जो हुआ था, वह पृथ्वी के एक देश रूस में हुई और उसके बाद सोवियत संघ के रूप में अस्तित्व में आई एक राजनीतिक  क्रान्ति भर नहीं थी। यह एक ऐसा विप्लव था, जिसने राज और सामाजिक ढांचे को चलाने के बारे में तब तक की सारी मान्यताओं की पुंगी बनाकर मुट्ठी भर शोषकों के राज को अंतिम सत्य मानने वालों को थमा दी थी। 1917 को पहली बार कायम हुआ मजदूरों का राज सिर्फ एक देश के मेहनतकशों की उपलब्धि नहीं थी, यह समता, समानता और शोषणविहीन समाज बनाने के हजारों साल पुराने उस सपने का साकार होना था, जिसने नया समाज ही नहीं, नए तरह का बेहतर और  संस्कारित मनुष्य भी तैयार किये था। सोवियत समाजवाद के न रहने के पूरे 33 वर्ष बाद भी, अपना वर्चस्व कायम करने के लिए खुला मैदान मिलने के बाद भी साम्राज्यवाद क्रांति के डर से कांप रहा है और इसीलिए मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना में जुटा है, क्योंकि उसे पता है कि अगर जिसका इलाज इस क्रान्ति ने किया था, यदि बीमारी वही है, तो आगे भी उसका इलाज वही होगा, जिसे मनुष्यता एक शताब्दी पहले देख चुकी है।

(आलेख : बादल सरोज)

(लेखक 'लोकजतन' के सम्पादक तथा अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैँ।

About The Author

Post Comment

Comment List

Online Channel

साहित्य ज्योतिष

संजीव -नी।
संजीव-नी।
संजीव-नी|
संजीव-नी|
संजीव-नी।