संजीव-नी|

कविता,

संजीव-नी|

हिंदुस्तान की सच्ची तस्वीर।

नल पर अकाल की व्यतिरेक ग्रस्त जनानाओं की
आत्मभू मर्दाना वाच्याएं।
एक-दूसरे के वयस की अंतरंग बातों,
पहलुओं को
सरेआम निर्वस्त्र करती,
वात्या सदृश्य क्षणिकाएं,
चीरहरण, संवादों से
आत्म प्रवंचना, स्व-स्तुति,
स्त्रियों के अधोवस्त्रों में झांकती
शब्दों की तीक्ष्ण नजरें,
निज संबंधों को
उघाड़ती शब्दांजलियां,
पानी के चंद कतरों को
गुण्डियों, जंग लगी छेद वाली
बाल्टियों में सहेजती।
कभी-कभी असगर और अमर के
लहू का लाल रंग
इस नल के पानी से कितना
मिलता-जुलता दिखता है।
पानी शायद रंगहीन
न जात, न पात।
लहू-लाल, न हिन्दू न मुसलमान,
वैसे ही जैसा खुला आसमान ?
समाज में पानी का अहम,
लहू के रंग से कहीं ज्यादा,
गहरा, और नल के ठीके पर
दिखाई देती है, सुबह शाम
धर्म निरपेक्षता की जीती-जागती
और सच्ची मिसालें।

संजीव ठाकुर

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