संजीव-नी।

कविता

संजीव-नी।

ग़ुज़री तमाम उम्र उसी शहर में कोई जानता न था 
वाक़िफ़ सभी थे,पर कोई पहचानता न था..
 
पास से हर कोई गुजरता मुस्कुराता न था,
मेरे ही शहर में लोगों को मुझ से वास्ता न था।
 
मेरे टूटे घर में कोई दरवाजा ना था
बावजूद इसके कोई झांकता न था।
 
फकीर घूम घूम कर उपदेश देता रहा,
शहर के लोगों को उससे नाता न था।
 
शहर भी वही लोग भी है परिचित भी वही,
वक्त पर कोई साथ देगा इसका मुझे मुगालता न था।
 
इस भरी दुनिया में सब के सब हैं यहां,
पर किसी क़ा किसी से रिश्ता न था।
 
तेरी मेरी नहीं सबकी कहानी है यह,
खमोश रहने के अलावा कोई रास्ता न था।
 
खामोशी से मेरी हमेशा बातें होती रही है,
आवाज मेरी जिंदगी का कभी कोई रिश्ता न था।
 
संजीव ठाकुर

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