यू.पी. में कहीं छोटे दलों का अस्तित्व ही न हो जाए खत्म
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यदि आप उत्तर प्रदेश की राजनीति को अच्छे ढंग से समझते हैं तो यहां पर छोटे छोटे राजनैतिक दलों का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। लेकिन ये राजनैतिक दल बिना किसी बड़ी पार्टी के सहारे के लाचार हैं और यही कारण है न तो इनकी कोई विचारधारा है और न ही कोई सिद्धांत हैं। लेकिन बड़ी पार्टियों को इनकी आवश्यकता पड़ती है जिससे कि राज्य में जातीय समीकरण साधा जा सके। लेकिन इनमें से कोई ऐसा नहीं है जो बिना किसी सहयोग के एक भी सीट जीतने में कामयाब हो सके। राज्य में कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद चार बड़ी पार्टियां हुआ करतीं थीं। सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में धीरे धीरे अपना सब कुछ खो दिया। उनके वोटर सपा और बसपा की तरफ शिफ्ट हो गए।
अब यहां लड़ाई सिर्फ तीन दलों की रह गई थी सपा, बसपा और भाजपा, लेकिन बाद में अपनी अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व करते करते एक के बाद एक तमाम जातिगत पार्टियां खड़ी हो गईं। वैसे तो जातियों का प्रतिनिधित्व सपा बसपा ने भी किया है लेकिन इनको अन्य जातियों का वोट भी मिला था। समाजवादी पार्टी संपूर्ण पिछड़ा वर्ग को साथ लेकर चली थी। वो बात अलग है कि भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी पर यादवों की पार्टी होने के वार किए और तमाम पिछड़ी जातियों के वोटरों को अपने पक्ष में कर लिया। लेकिन पूर्वांचल में जिस तरह से अपना दल सोनेलाल, अपना दल कमेराबादी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, महान् दल और अभी हाल ही में गठित की गई स्वामी प्रसाद मौर्य की भारतीय शोषित समाज पार्टी ने राजनीति की फजीहत की है बड़ी पार्टी के लिए ये मजबूरी बन गये थे। लेकिन यह भी सत्य है कि ये बिना गठबंधन के एक सीट नहीं जीत सकते।
ये पूरी तरह से गठबंधन पर निर्भर हो चुके हैं। मतलब न तो इनकी कोई विचारधारा रही और न ही कोई सिद्धांत और न ही ये अब अपनी जातियों का भला करते दिखाई देते हैं। यह बस सत्तधारी दल की हां में हां मिलाते दिखाई दे रहे हैं। और इसीलिए इनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। अभी हाल ही में अपना दल सोनेलाल की प्रमुख अनुप्रिया पटेल ने आवाज उठाई थी कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी, एससी-एसटी की भर्तियों को जनरल कैटेगरी में करके भर्ती किया जा रहा है। लेकिन यह मामला दो चार दिन चला। योगी आदित्यनाथ सरकार ने उनको जबाब दे दिया और वह शांत हो गईं। कहने का मतलब आपने जिस कार्य के लिए पार्टी का गठन किया था सरकार में रहकर भी आप अपनी जाति की आवाज नहीं उठा सकते तो ऐसा प्रतिनिधित्व किस काम का है।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सर्वाधिक सीट हैं लेकिन यहां पर वोटों का जो जातीय ध्रुवीकरण होता है वह शायद देश के अन्य किसी प्रदेश में न होता हो। इसका सबसे बड़ा कारण है यहां पर जातीय आधार पर छोटी-छोटी पार्टियों का होना। उत्तर प्रदेश में एक समय कांग्रेस का राज्य चलता था उसके बाद मुलायम सिंह यादव ने जबरदस्त इंट्री की और पहले जनता दल के साथ रहकर मुख्यमंत्री बने उसके बाद जब जनता दल टूट गया तब मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी का गठन किया इस दौरान मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने इस बीच में भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश और केंद्र में संघर्ष कर रही थी और किसी तरह से सत्ता में आने के लिए प्रयासरत थी।
तब वोटों का बंटवारा तीन जगह होने लगा। लेकिन बाद में जब धीरे धीरे इन छोटी छोटी पार्टियों का गठन हुआ इन्होंने पूर्वांचल की राजनीति को पेचीदा बना दिया। पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी ने अपना अच्छा गढ़ बना लिया था। और सपा के इस गढ़ को तोड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने पूर्वांचल की लगभग सभी पार्टियों को अपने खेमे में ले लिया। लेकिन अब इन पार्टियों का सूरज ढलते हुए नज़र आ रहा है।अभी हाल ही में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में इन छोटे दलों की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई है।
ये एनडीए में शामिल होकर भी भारतीय जनता पार्टी को पूर्वांचल में उतनी सफलता नहीं दिला सके जितनी कि वह पहले अपने दम पर ही हासिल कर लेती थी। इस बार पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी ने जोरदार वापसी की। और भारतीय जनता पार्टी को 62 सीटों से 33 सीटों पर ला दिया। जब कि समाजवादी पार्टी के गठबंधन में केवल कांग्रेस पार्टी ही शामिल थी। पश्चिम में भी जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल भी चुनाव से पहले एनडीए में शामिल हो गई थी। कहने का मतलब यदि यह पार्टियां खुद के निर्णय और स्वयं की विचारधारा पर काम नहीं करेंगी तब तक इनको सहारे की जरूरत पड़ती रहेगी। माना कि यह दौर गठबंधन का दौर है लेकिन गठबंधन भी समान विचारधारा के दलों से किया जाता है।
कांग्रेस,सपा और बसपा का गठबंधन उत्तर प्रदेश में समझा जा सकता है क्यों कि इनकी विचारधारा लगभग एक है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा शायद ही देश की किसी दूसरी पार्टी से मेल खाती हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू हर बार नहीं चल सकता यह बात इस बार के चुनाव में सिद्ध हो चुकी है। क्यों कि केन्द्र में अब गठबंधन की सरकार है और गठबंधन का एक भी घटक दल इधर-उधर हुआ तो सरकार अस्थिर हो सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, केशव देव मौर्य, दारा सिंह चौहान और पल्लवी पटेल समाजवादी पार्टी के साथ आ गये थे। शायद उनको यह अंदेशा नजर आ रहा था कि समाजवादी पार्टी की सरकार बन सकती है और हम सत्ता के करीब आ रह सकते हैं।
लेकिन जब प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो यह नेता एक एक करके समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ गए। लेकिन जो अपने सिद्धांतों पर टिक कर नहीं रह सकता उसको इधर-उधर होना ही पड़ेगा क्योंकि वह दूसरों पर ही आश्रित है। समाजवादी पार्टी के पास पिछले लोकसभा चुनाव में मात्र पांच सीटें थीं। उनकी संख्या दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाई थी। उसी समाजवादी पार्टी ने आज प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 37 पर विजय हासिल कर खलबली मचा दी है। लोकसभा के मद्देनजर देखा जाए तो आज उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।
शायद पूर्वांचल के इन नेताओं को इतना भरोसा नहीं हुआ होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चन्द्रशेखर आजाद रावण जो कि काफी समय से संघर्षरत हैं। वह सपा कांग्रेस और विपक्ष के सभी नेताओं से मिले लेकिन उनसे किसी ने गठबंधन नहीं किया। इस लोकसभा चुनाव में वह अकेले नगीना लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और जीत हासिल की। यह होता है अपने सिद्धांतों पर डटे रहना। चन्द्रशेखर काफी समय से दलितों और वंचितों की राजनीति कर रहे हैं। दूसरा मायावती के हांसिए पर आ जाने के बाद चन्द्रशेखर की राजनीति चमक बढ़ सकती है और उनको मायावती के बाद अगला दलित नेता समझा जाने लगा है। लेकिन अभी काफी नई शुरुआत है और यह कहना भी जल्दबाजी होगी कि वह बसपा को नीचे कर देंगे।
जितेन्द्र सिंह पत्रकार
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